ये उन दिनों की बात है
ये उन दिनों की बात है...
जब हम छोटे बच्चे थे और छोटी सी लंगोट पहनते थे
दुनिया को हथेली में लिए चार पैरों पर चलते थे और तीन पाइयों की साइकिल चलाते थे
दस माह का अंतर था ज़िन्दगी हुई रंगीन
कहने-सुनने को तो बहुत था परन्तु चुप्पी थी शालीन
क्या कहें ये उन दिनों की बात है ...
ये उन दिनों की बात है ...
जब हम तनिक से बड़े हुए और हमारी लंगोट बनी पाठशाला की चड्डी
शाळा चले साथ हाथो में लेकर हाथ
एक-दूजे का सहारा बने और खायी गलतियों पर डांट
नादानियों की अन्बन ने तोडा कुछ पल का साथ
उन पलों ने सिखाया मात-पिता के अलावा दोस्तों का भी होना चाहिए सर पर हाथ
वह छोटे से आँगन की मस्तियाँ
गली में खेलते खेलते मार लगना या कांच का फूट जाना
कुछ मिनटों में नौ दो ग्यारह हो जाना
छोटी छोटी खुशियों में दिल भर आना और गलतियों में रूठ जाना
परिणाम वश खेल का बंध होजाना
पत्थर मारकर इमली तोडना और सीताफल तोड़ने लाँडोरीयां बनाना
गलती से पत्थर का बगल के घर में जा गिरना और डांट सुनना
इन कुछ घड़ियों ने सजाया था बचपन में हम दोस्तों का आशियाना
और तो क्या कहें ये उन दिनों की बात है ...
ये उन दिनों की बात है...
जब हमारी चड्डियाँ बड़ी हुई और पैंट बन गयी ...
शाळा पूरी होते ही देने अपने सपनों को अंजाम
सुनहरी यादों को मन में गाँठ बांधे निकल पड़े बनाने अपने मकान
ऐसे ही हँसते हंसाते रोते रुलाते एक ऐसा अटूट रिश्ता बन गया
दूर होते हुए भी पास होने का एहसास दिला रहा
समय बीतता गया और बातें कम हुई पर
जब भी मिले दोस्तों की वही बचपन वाली महफ़िल जमी
और तो क्या कहे ये उन दिनों की बात है...
ये उन दिनों की बात है...
जब हम कॉलेज जाने लगे
नया सा सफर था और नयी सी राहें
अनजानी सी गलियों में फैलानी थी बाहें
सीखते सीखते अनुभव के संग पूरी करनी थी आशाएं
नयी सी दुनिया में मिले कुछ नए साथी
सच बताऊँ तो तब जंगल के वही थे हाथी
ना जाने वह छः साल कैसे बीत गए
हमारे छोटे से आशियाने में कुछ नए रंग जुड़ गए
ये रंग थे बड़े सुहाने जो कभी कभी लगते रुलाने
इन रंगों में हम ऐसे घुल गए... क्या बताऊँ यारों
बिन बरसात के फूल खिल गए
और तो क्या बताऊँ ये उन दिनों की बात है ...
ये इन दिनों की बात है...
नींदें उड़ा कर सपनों को साँझा रहे ...
आहिस्ता आहिस्ता कदम बढ़ा रहे
और अपनी मंज़िल को पास बुला रहे
इस कोलाहल के माहौल में कल आया एक विचार
जिसने फैला दिया ये यादों का माया जाल
अब तो ये आज की ही बात है
वैसे तोह ये अंग्रेज़ों की प्रथा है बड़ी निराली
बैठे बैठे ये सोचने पर मजबूर कर देती की दोस्ती मनाने का दिन भी कोई होता है
बल्कि हम तो ऐसे है की जहाँ दोस्त मिल जाए वहां त्यौहार मना लेते है
पर एक बात तो माननी पड़ेगी... जैसी भी ये प्रथा है
साल में एक बार ही सही चाहो या ना चाहो दोस्ती की ऐसी लहर चलाती है की
याराने की रील अपने आप चल पड़ती है
और तो हम क्या कहें...
इन्ही के सहारे दुनिया भी तो चलती है...
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